धागा
अपने दृढ़ निश्चय को याद करते हुए मैंने दोबारा अपनी आंखें मीच लीं। मगर नींद भी जैसे अपनी ही ज़िद पकड़ कर बैठी थी। रात में जल्दी सो जाने की एक और नाकाम कोशिश से उब कर मैंने आंखें खोल ही लीं। कमरे की लाइट जलाई और बिस्तर पर बैठी अपने किताबों के भंडार को देखती रही। रात के इस सूनेपन में तरीके से लगी हुई किताबों से भरा शेल्फ काफी मनमोहक प्रतीत हो रहा था। मुझे मालूम ही नहीं हुआ कि कब उन किताबों के आकर्षण ने मुझे बिस्तर से उतार कर शेल्फ के सामने ला कर खड़ा कर दिया। कुछ देर के विचार के बाद मैंने शेल्फ के पीछे से प्रेमचंद की एक किताब निकाली। किताब के कवर पर जमी धूल इस बात का प्रमाण थी कि इसे कुछ अरसे से छुआ नहीं गया था। परन्तु क्यूं? क्यूं मैंने प्रेमचंद की किताब शेल्फ में पीछे कहीं छुपा कर रखी थी, अपनी आंखों से दूर, अपनी पहुंच से दूर। अचानक इस सवाल का उत्तर मेरे ज़हन में उतरा और मेरे पूरे शरीर में सिहरन सी होने लगी। मै डगमगाते क़दमों से बिस्तर की ओर गई और एक कम्बल ओढ़ कर बैठ गई। किताब मेरे हाथ में थी और मेरा दिमाग बीते वक़्त का भ्रमण कर रहा था। मै किसी खाली मैदान के इस तरफ खड़ी थी और इस वक़्त मु...